आर्थिक मंदी

जब गांव की पगडंडी पर पहुंचती है आर्थिक मंदी


गांवों में आर्थिक मंदी का असर भले ही कम दिखाई दे रहा हो, लेकिन वे इससे अछूते नहीं हैं। मांग में कमी के कारण हमारी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है। यह कमी कितनी व्यापक है, इसका पता न सिर्फ सरकारी आंकड़ों से चलता है, बल्कि कई उत्पादों की घटती बिक्री भी इस हकीकत की तस्दीक कर रही है। इन उत्पादों में ऑटोमोबाइल, टीवी से लेकर बिस्कुट और अंडर-गार्मेंट्स जैसी रोजाना इस्तेमाल की चीजें शामिल हैं। कुछ बड़ी कंपनियों ने अपनी इकाइयां अस्थाई रूप से बंद कर दी हैं, जिसके कारण रोजगार का सवाल भी गहरा गया है। सिर्फ वैश्विक अनिश्चितता या आर्थिक उथल- पुथल के कारण यह सब नहीं हो रहा। इसकी वजह घरेलू परिस्थितियां हैं, जिसके केंद्र में लोगों की घटती आमदनी है। मगर सवाल यह है कि इस गिरावट का प्रसार आखिर कहां तक है? ग्रामीण भारत की दुर्दशा तो साफ है। वहां अधिक लागत पर कम आमदनी भारी पड़ रही है, जिससे खेती से होने वाली आय प्रभावित हुई है। खेतिहर श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी पिछले दो वर्षों में कम हुई है, जबकि दिहाड़ी मजदूरों के तो पिछले पांच वर्षों में हाथ- पांव ही बंध गए हैं। जाहिर है, ग्रामीण भारत पिछले दो दशकों के सबसे गंभीर संकट से गुजर रहा है, और यह अब हमारी बहस का विषय भी नहीं रह गया है। इनसे कुछ हद तक यह तो पता चलता है कि कृषिकीमतें क्यों गिरी और बिस्कुट जैसी बुनियादी वस्तुओं की मांग क्यों कम हुई है, लेकिन यह जाहिर नहीं हो पाता कि दोपहिया वाहन और टीवी जैसे उत्पादों की बिक्री क्यों घटी? इनकी मांग में बेशक ग्रामीण क्षेत्र योगदान देते हैं, लेकिन इनका बड़ा बाजार तो आज भी शहर ही हैं। दुर्भाग्य से हमारे पास इस बाबत सीमित आंकड़े हैं कि आखिर शहरी लोगों की आमदनी क्यों घटी? फिलहाल ग्रामीण मजदूरी को लेकर हर महीने आंकड़े जारी किए जाते हैं, लेकिन शहरवासियों के लिए इस तरह के आंकड़ों के विश्वसनीय स्रोत सिर्फ राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय केरोजगार-बेरोजगारसर्वे हैं। इन्हीं सर्वे में आवधिक श्रम- बल सर्वेक्षण भी शामिल हैं, जो नौकरीशुदा लोगों की आमदनी का लेखा-जोखा पेश करते हैं। इसके आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011-12 और 2017-18 के दौरान नियमित कामगारों की कमाई कम हुई है। ऐसा शहरी व ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में हुआ है। गांवों में नियमित मजदूरी में सालाना 0.3 फीसदी की कमी आई है, तो शहरों में 1.7 प्रतिशत की। पिछले पांच दशकों में यह दूसरा मौका है, जब वास्तविक नियमित वेतन कम हुआ है। इससे पहले 1999-2000 और 2004-05 के दौरान ऐसा हुआथा। चिंताजनक यह भी है कि स्नातक या इससे ऊंची डिग्री हासिल कर नौकरी करने वाले लोगों में, जो आमतौर पर मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह गिरावट तेज है;सालाना तीन फीसदी। यही कारण है कि मध्यवर्ग द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं की मांग में कमी देखी जा रही है। ग्रामीण संकट के साथ-साथ ये आंकड़े दो अन्य परेशान करने वाले तथ्यों की ओर इशारा करते हैं। पहला यह कि ज्यादातर श्रेणियों के कामगारवेतन के स्थिर होने या फिर घटने की बात कह रहे हैं, जिसके कारण राष्ट्रीय आंकड़ों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाती है। दूसरा यह कि मांग का संकट अब ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि तमाम आंकड़े बताते हैं कि यह कहीं अधिक व्यापक है। साफ है, मांग बढ़ाने के लिए गांवों में नियमित मजदूरी में सालाना 0.3 फीसदी की कमी आई है, तो शहरों में 1.7 प्रतिशत की गिरावट। सरकार को बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप करना होगा। मगर प्रतिक्रियाओं से लगता नहीं कि सरकार इतनी गंभीर है। ऑटो सेक्टर की मंदी का ठीकरा ओला-उबर पर फोड़ना और प्रतिकूल आंकड़ों को खारिज करना यही बता रहा है कि फिलहाल हालात दुरुस्त होने वाले नहीं हैं। लेकिन क्या संकट को और गंभीर होने से रोका जा सकता है? यह भी इस पर निर्भरकरेगा कि सरकार इसके लिए क्या कदम उठाती है। अब तक समग्रता में प्रयास नहीं किए गए हैं, कोशिशें अमीरों को खुश रखने की हुई हैं। मौद्रिक मामलों में सीमित हस्तक्षेप किया गया है और निवेशकों को प्रोत्साहित करने में भी विफलता दिख रही है। जब तक सार्वजनिक खर्च से जुड़ी मांग को नहीं बढ़ाया जाएगा, सफलता नहीं मिल सकती। इसके लिए यदि राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को भी नजरंदाज करना पड़े, तो अभी किया जाना चाहिए। मगर इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की दरकार होगी।


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