कोने में है हिंदी

दुनिया के हर कोने में है हिंदी


दुनिया के हर कोने हिंदी को अगर हम ज्ञान-विज्ञान और तकनीक की भाषा बना सकें, तो इससे हिंदी भाषा-भाषियों के सशक्तीकरण की राह भी खुलेगी


आज की दुनिया में आप जहां भी जाएं, वहां आपको हिंदी बोलने वाले जरूर मिल जाएंगे। पेरिस, लंदन, न्यूयॉर्क, सिंगापुर, जोहानिसबर्ग, ऑस्ट्रेलिया, सभी जगह भारतीय नागरिक मिल जाते हैं और उन लोगों की बातों में हिंदी जरूरसुनाई देती है। जापान के कुछशहरों में भी भारतीय नागरिकों की संख्या अधिक है, जैसे कोबे, हामामात्सु, टोक्यो आदि में। वहां भी आपको हिंदी सुनने को मिलेगी। बोलचाल की भाषा के रूप में हिंदी भाषा का प्रसार अब विश्वव्यापी है। इसमें हिंदी फिल्मों की खास भूमिका है। हिंदी फिल्में गैर-हिंदीभाषियों को भी हिंदी की ओर आकर्षित करती है। हिंदी फिल्मों को दुनिया की कई भाषाओं में डब भी किया जाने लगा है। जापान में भी हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता बहुत बढ़ रही है। फिल्मों के जरिए हिंदी भाषा कई देशों और संस्कृति के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ रही है। इंसान भाषा का प्रसार नहीं करसकता, भाषा का प्रसार स्वयं ही संभव होता है। इतिहास में जब भी भाषा का प्रसार जबरन कराया गया, उसका परिणाम हमेशा दुखद ही रहा। जैसे, 20वीं शताब्दी के अंत में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का विरोध करते हुए आंदोलन चल रहा था। 1976 में यह निश्चय किया गया कि देश भर के स्कूलों में सिर्फ गोरों की भाषा का प्रयोग होगा। स्कूलों के असंख्य बच्चे एक साथ खड़े हो गए और उसका विरोध करते हुए आंदोलन शुरू किया। उस संघर्ष में 13 साल के बच्चे को गोली मारी गई। स्कूलों के मासूम बच्चों को अपनी भाषा के लिए लड़ना पड़ा, क्योंकि उनकी भाषा उनके लिए अपना जीवन थी। बाद में उस साहसी बच्चे, हेक्टर पीटर्सन की स्मृति में जोहानिसबर्ग में संग्रहालय बनाया गया, जो आज भी लोगों को उस अत्याचार की याद दिलाता है। हमें इस इतिहास को कभी नहीं भूलना चाहिए। एक तरफ भाषा संस्कृति का दूत बनकर विश्व भर के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ती है और मित्रता की स्थापना करती है, तो दूसरी ओर भाषा एक समूह के अहंकारको सिद्ध करने का हथियार बन जाती है। आज की दुनिया में विज्ञान औरतकनीक की नई जानकारी अधिकांशतः अंग्रेजी में उपलब्ध है। इसलिए भारत और अन्य कई देशों में भी उच्च शिक्षा-व्यवस्था में अंग्रेजी का वर्चस्व अधिक है। वहां शिक्षा की भाषा अंग्रेजी होती है और पढ़ने की सामग्री भी अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। अगर हिंदी को इसके स्थान पर रखा जाए, तो विश्व में हिंदी का स्तर और भी ऊंचा हो जाएगा। जैसे, जापान में ये सब व्यवस्थाएं अंग्रेजी में न होकरजापानी भाषा में ही बनाई गई हैं। उच्च शिक्षा में जापानी भाषा का ही प्रयोग होता है। विज्ञान, तकनीक या अन्य शैक्षिक क्षेत्र से संबंधित नवीनतम जानकारी और सामग्री भी जापानी भाषा में उपलब्ध है। विद्यार्थी और विद्वान सारा ज्ञान जापानी भाषा में ही हासिल करने के बाद आगे चलकर जापानी भाषा में ही तकनीक का विकास और विज्ञान की उन्नति के लिए अपना योगदान देते हैं। इससे ज्ञान और विज्ञान की ऐसी व्यवस्था बन गई है, जिसमें हर जापानी भाषा-भाषी यानी देश का हर नागरिक शामिल हो सकता है। अगर भारत में भी हिंदी के साथ उस प्रकार की व्यवस्था बनाई जाती है, तो अधिकाधिक भारतीय नागरिकों को इस प्रक्रिया में शामिल किया जा सकेगा। भारत में ऐसे असंख्य हिंदी भाषा-भाषी हैं, जिनके पास असीम क्षमता है। असल में, वे प्रतिभा के भंडार हैं। ऐसी व्यवस्था के साथ देश में तकनीक और विज्ञान का विकास भी तेजी से और शक्तिशाली रूप में हो सकेगा। अब हम विदेशों और विदेशियों के संदर्भ में हिंदी की स्थिति को देखें। मैं स्वयं कई इच्छुक जापानी छात्रों को हिंदी की शिक्षा दे रही हूं। मुझे यह महसूस होता है कि विदेशी या गैर-हिंदीभाषी के लिए हिंदी भाषा सीखने की अच्छी व्यवस्था तैयार करने की जरूरत है। जैसे, अच्छी गुणवत्ता वाली मानक पाठ्य-पुस्तक का प्रकाशन हो, जिसमें छात्रों की योग्यता के अनुसार व्याकरण का सहज, सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन होना जरूरी है। शिक्षकों के लिए भी विशेष प्रकार के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का आयोजन और अभियान चलाने की आवश्यकता होगी। आज दुनिया के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों और विभिन्न संस्थानों में हिंदी की शिक्षा दी जाती है। इस संदर्भ में जापान और हिंदी का संबंध 100 साल से अधिक पुराना है। जापान में सबसे पहले हिंदी की पढ़ाई टोक्यो विश्वविद्यालय में शुरू हुई। वहां 1908 से कई भारतीय शिक्षक हिंदी और उर्दू की शिक्षा हिन्दुस्तानी भाषा के रूप में देते रहे हैं। जापान के रेडियो पर 1940 में ही हिंदी भाषा का प्रसारण आरंभ हुआ और यह आज भी जारी है।जापान में हिंदी साहित्य के प्रचार करने वाले प्रोफेसर दोई क्यूया का महत्वपूर्ण स्थान है, जिन्होंने संक्षिप्त हिंदी शब्दकोश की रचना की और हिंदी साहित्य की अनेक महत्वपूर्ण रचनाओं का जापानी भाषा में अनुवाद किया। उनके द्वारा अनूदित प्रेमचंद का गोदान 1959 में प्रकाशित हुआ। यह शायद जापानी भाषा में छपी पहली हिंदी साहित्यिक कृति थी। उसके बाद से लेकर आज तक अनेक हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं के अनुवाद प्रकाशित होते रहे हैं। जैसे, कबीर, तुलसीदास, सूरदास, पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, मोहन राकेश, मार्कण्डेय, जैनेंद्र कुमार, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, दिनकर, यशपाल, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी, मन्नू भंडारी, उदय प्रकाश, मृदुला गर्ग इत्यादि। साल 2012 में भारत-जापान राष्ट्रीय संबंधों की 60वीं वर्षगांठ मनाई गई थी। हिंदी साहित्य के जापानी अनुवाद के इतिहास के आधार पर भी जापान और भारत का संबंध लगभग उतना ही पुराना है। लेकिन हिंदी भाषा के शिक्षण के संदर्भ में देखें, तो भारत और जापान का संबंध राष्ट्रीय स्तर से भी अधिक, यानी लगभग 110 साल पुराना है। इसमें हम भारत औरजापान के संबंध की गहनता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के इतिहास को देख सकते हैं। यह जापान के हिंदी विद्वानों के अथक प्रयास का फल है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)



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