हिंदी है भारत की बोली
हिंदी दिवस के मौके पर हिंदीप्रेमियों में अक्सर दुविधा जैसी स्थिति देखी जाती है। दुविधा इस बात को लेकर कि वे दुनिया के अन्य देशों में हिंदी की लगातार दमदार मौजूदगी का जश्न मनाएं या अपने ही देश में कई स्तरों पर उपेक्षा झेलने का मातम। इस दुविधा की स्थिति से निकलने में एक सूत्र मददगार साबित हो सकता है। दरअसल, भाषा को बहता नीर' माना गया है। इसी सूत्र में सार छिपा है। पानी तल के हिसाब से अपना रास्ता खुद ढूंढ़ लेता है। भाषा भी सांस्कृतिक, सामाजिक, व्यावसायिक आदि कई आधारों पर अपना बहाव खुद बना लेती है। दुनिया के ताकतवर देशों के बीच हर मोर्चे पर भारत की धमक ज्यों-ज्यों बढ़ती चली जाएगी, त्यों-त्यों हिंदी भी 'ग्लोबल' होती जाएगी। जहां तक अपने घर की बात है, तो सियासतदां हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कोई नया प्लान न भी बनाएं और केवल इसके बहाव में 'रुकावटें न खड़ी करें, तब भी इसका भविष्य उज्ज्वल मालूम पड़ता है। गोपाल सिंह 'नेपाली' की अप्रैल, 1955 में हिंदी के विकास पर लिखी कविता पर नजर डालिए, यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक और तरोताजा नजर आती है, जितनी करीब 64 साल पहले थी- दो वर्तमान का सत्य सरल/सुंदर भविष्य के सपने दो/ हिंदी है भारत की बोली/तो अपने आप पनपने दो।
दुनिया में भारत की धमक ज्यों-ज्यों बढ़ती जाएगी,